देहरादून। यूकेडी नेता व पूर्व विधायक पुष्पेश त्रिपाठी ने पंचायत चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिये शैक्षिक योग्यता हाईस्कूल किए जाने और दो से अधिक बच्चों के माता-पिता के चुनाव लड़ने पर रोक लगाए जाने का विरोध करते हुए इस संबंध में प्रधानमंत्री को ज्ञापन भेजा है। उनका कहना है कि देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को जनप्रतिनिधित्व का अधिकार देता है। भारतीय लोकतंत्र की सबसे खूबसूरती यही है कि इसमें जनता को निर्णय में भागीदारी, काम में भागीदारी और श्रेय में भागीदारी का भाव निहित है। इससे हम हर वर्ग के साथ सहकारिता और आपसी सद्भाव और एक-दूसरे को समझते हुये अपनी प्रगति का रास्ता निकालते हैं। उत्तराखंड सरकार ने पंचायत चुनाव में जिस तरह पंचायत सदस्यों की लिये शिक्षा और दो से अधिक बच्चों के चुनाव पर रोक लगाई है, यह न केवल संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, बल्कि ग्राम स्वराज की परिकल्पना को साकार करने भी बाधक है।
सरकार ने फैसला लिया है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाग लेने वाले प्रत्याशियों की शैक्षिक योग्यता कम से कम हाई स्कूल होनी चाहिये। महिलाओं, अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये इसमें शिथिलता है। उन्हें कम से कम आठवीं पास होना चाहिये। दूसरा, दो से अधिक बच्चों बाले चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।
इसके खिलाफ जब लोग न्यायालय गये तो उच्च न्यायालय ने भी इसे सही मानते हुये उसकी एक समय सीमा निर्धारित कर दी जो न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि हमारे संवैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण भी है। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे सही माना है। यह निर्णय बताता है कि हमारे नीति-नियंता हमारी जनता के बारे में क्या सोचते हैं। उनके संवैधानिक अधिकारों के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या है। 1987 में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। उसका नेतृत्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कर रहे थे। उन्होंने 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों और स्थानीय निकाय संस्थाओं को आत्मनिर्भर और शक्ति संपन्न बनाने के लिये रास्ता तैयार किया था। यह अलग बात है कि राज्य सरकारों ने कभी अपने यहां इस संशोधन के अनुरूप पंचायतीराज एक्ट नहीं बनाया, हां उन्होंने पंचायतों को कमजोर करने का कोई मौका नहीं चूका। यही वजह है कि उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चनाव तो करा दिये लेकिन उनके अधिकारों को परिभाषित नहीं किया। अब सरकार ने शिक्षा और दो से अधिक बच्चों का मानक रखकर बड़ी संख्या में लोगों के जनप्रतिनिधित्व अधिकार का हनन करने का काम किया है। इस कानून के आलोक में इस बात को समझना जरूरी है कि कितनी नासमझी और जल्दबाजी में इस कानून को लागू किया गया है। पहली बात है शिक्षा को लेकर। पंचायत प्रतिनिधियों को कम से कम हाई स्कूल होना चाहिये के सरकार के फैसले पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहला तो यह कि जो सरकारें शिक्षा को घर-घर तक पहुंचाने की बात करती रही हैं वे अभी तक शिक्षा तो दूर सब लोगों को साक्षर तक नहीं कर पाई हैं। उत्तराखंड में 2011 की जनगणना के अनुसार कुल साक्षरता प्रतिशत 78.82 है। इसमें पुरुष साक्षरता 87.40 और महिला साक्षरता 70.40 प्रतिशत है। अगर हम ग्रामीण और शहर की साक्षरता को अलग.अलग करके देखें तो ग्रामीण क्षेत्र में साक्षरता का प्रतिशत इससे भी बहुत कम है। अगर इसी आंकड़े पर भी बात करते हैं तो भी एक बड़ी जनसंख्या को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। सरकार की नई व्यवस्था से लगभग 14 प्रतिशत पुरुष और 30 प्रतिशत महिलायें पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। सबको साक्षर और सबको शिक्षा देने का काम सरकार का है। अगर वह अपने नागरिकों को शत.प्रतिशत साक्षर नहीं बना पायी है तो उसे यह भी अधिकार नहीं है कि वह उन्हें संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखे। उन्होंने इन जनविरोधी निर्णयों को वापस लिए जाने के संबंध में प्रदेश सरकार को निर्देशित किए जाने की मांग की है।